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मुंशी प्रेमचंद ः गबन


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रमानाथ-'हां थी तो, पर नहीं कह सकता, क्यों वहां से चली गई। इंस्पेक्टर साहब मेरे साथ थे। उनके सामने मैं उससे कुछ पूछ तक न सका। मैं जानता हूं, वह मुझे देखकर मुंह उधर लेती और शायद मुझे जलील समझती, मगर कमसे- कम मुझे इतना तो मालूम हो जाता कि वह इस वक्त इस दशा में क्यों है। हरा, तुम मुझे चाहे दिल में जो कुछ समझ रही हो, लेकिन मैं इस ख़याल में मगन हूं कि तुम्हें मुझसे प्रेम है। और प्रेम करने वालों से हम कम-से-कम हमदर्दी की आशा करते हैं ब यहां एक भी ऐसा आदमी नहीं, जिससे मैं अपने दिल का कुछ हाल कह सयं ब तुम भी मुझे रास्ते पर लाने ही के लिए भेजी गई थीं, मगर तुम्हें मुझ पर दया आई। शायद तुमने गिरे हुए आदमी पर ठोकर मारना मुनासिब न समझा, अगर आज हम और तुम किसी वजह से रूठ जायं, तो क्या कल तुम मुझे मुसीबत में देखकर मेरे साथ ज़रा भी हमदर्दी न करोगी? क्या मुझे भूखों मरते देखकर मेरे साथ उससे कुछ भी ज्यादा सलूक न करोगी, जो आदमी कुत्तों के साथ करता है? मुझे तो ऐसी आशा नहीं। जहां एक बार प्रेम ने वास किया हो,वहां उदासीनता और विराग चाहे पैदा हो जाय, हिंसा का भाव नहीं पैदा हो सकता क्या तुम मेरे साथ ज़रा भी हमदर्दी न करोगी ज़ोहरा? तुम अगर चाहो, तो जालपा का पूरा पता लगा सकती हो,वह कहां है, क्या करती है, मेरी तरफ से उसके दिल में क्या ख़याल है, घर क्यों नहीं जाती, यहां कब तक रहना चाहती है? अगर तुम किसी तरह जालपा को प्रयाग जाने पर राज़ी कर सको ज़ोहरा -' तो मैं उम्र-भर तुम्हारी गुलामी करूंगा। इस हालत में मैं उसे नहीं देख सकता शायद आज ही रात को मैं यहां से भाग जाऊं। मुझ पर क्या गुज़रेगी, इसका मुझे ज़रा भी भय नहीं हैं। मैं बहादुर नहीं हूं,बहुत ही कमज़ोर आदमी हूं। हमेशा ख़तरे के सामने मेरा हौसला पस्त हो जाता है, लेकिन मेरी बेगैरती भी यह चोट नहीं सह सकती।'

ज़ोहरा वेश्या थी, उसको अच्छे-बुरे सभी तरह के आदमियों से साबिका पड़ चुका था। उसकी आंखों में आदमियों की परख थी। उसको इस परदेशी युवक में और अन्य व्यक्तियों में एक बडा फर्क दिखाई देता था ।पहले वह यहां भी पैसे की गुलाम बनकर आई थी, लेकिन दो-चार दिन के बाद ही उसका मन रमा की ओर आकर्षित होने लगा। प्रौढ़ा स्त्रियां अनुराग की अवहेलना नहीं कर सकतीं। रमा में और सब दोष हों, पर अनुराग था। इस जीवन में ज़ोहरा को यह पहला आदमी ऐसा मिला था जिसने उसके सामने अपना ह्रदय खोलकर रख दिया, जिसने उससे कोई परदा न रक्खा। ऐसे अनुराग रत्न को वह खोना नहीं चाहती थी। उसकी बात सुनकर उसे ज़रा भी ईर्ष्या न हुई,बल्कि उसके मन में एक स्वार्थमय सहानुभूति उत्पन्न हुई। इस युवक को, जो प्रेम के विषय में इतना सरल था, वह प्रसन्न करके हमेशा के लिए अपना गुलाम बना सकती थी। उसे जालपा से कोई शंका न थी। जालपा कितनी ही रूपवती क्यों न हो, ज़ोहरा अपने कला-कौशल से, अपने हाव-भाव से उसका रंग फीका कर सकती थी। इसके पहले उसने कई महान सुंदरी खत्रानियों को रूलाकर छोड़ दिया था , फिर जालपा किस गिनती में थी। ज़ोहरा ने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा, 'तो इसके लिए तुम क्यों इतनारंज करते हो, प्यारे! ज़ोहरा तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार है। मैं कल ही जालपा का पता लगाऊंगी और वह यहां रहना चाहेगी, तो उसके आराम के सब सामान कर दूंगी । जाना चाहेगी, तो रेल पर भेज दूंगी।'

रमा ने बडी दीनता से कहा, 'एक बार मैं उससे मिल लेता, तो मेरे दिल का बोझ उतर जाता।'
ज़ोहरा चिंतित होकर बोली, 'यह तो मुश्किल है प्यारे! तुम्हें यहां से कौन जाने देगा?'
रमानाथ-'कोई तदबीर बताओ।'
ज़ोहरा -'मैं उसे पार्क में खड़ी कर आऊंगी। तुम डिप्टी साहब के साथ वहां जाना और किसी बहाने से उससे मिल लेना। इसके सिवा तो मुझे और कुछ नहीं सूझता।
रमा अभी कुछ कहना ही चाहता था कि दारोग़ाजी ने पुकारा, 'मुझे भी खिलवत में आने की इजाज़त है? '
दोनों संभल बैठे और द्वार खोल दिया। दारोग़ाजी मुस्कराते हुए आए और ज़ोहरा की बग़ल में बैठकर बोले, 'यहां आज सन्नाटा कैसा! क्या आज खजाना खाली है? ज़ोहरा -' आज अपने दस्ते-हिनाई से एक जाम भर कर दो।'
रमानाथ-' भाईजान नाराज़ न होना।' रमा ने कुछ तुर्श होकर कहा, 'इस वक्त तो रहने दीजिए, दारोग़ाजी, आप तो पिए हुए नजर आते हैं।'
दारोग़ा ने ज़ोहरा का हाथ पकड़कर कहा, 'बस, एक जाम ज़ोहरा -' और एक बात और, आज मेरी मेहमानी कबूल करो! '
रमा ने तेवर बदलकर कहा, 'दारोग़ाजी, आप इस वक्त यहां से जायं। मैं यह गवारा नहीं कर सकता दारोग़ा ने नशीली आंखों से देखकर कहा, 'क्या आपने पट्टा लिखा लिया है? '
रमा ने कड़ककर कहा, 'जी हां, मैंने पट्टा लिखा लिया है!'
दारोग़ा -'तो आपका पट्टा खारिज़! '
रमानाथ-'मैं कहता हूं, यहां से चले जाइए।'
दारोग़ा -'अच्छा! अब तो मेंढकी को भी जुकाम पैदा हुआ! क्यों न हो, चलो ज़ोहरा -' इन्हें यहां बकने दो।'
यह कहते हुए उन्होंने जोहरा का हाथ पकड़कर उठाया। रमा ने उनके हाथ को झटका देकर कहा, 'मैं कह चुका, आप यहां से चले जाएं ।ज़ोहरा इस वक्त नहीं जा सकती। अगर वह गई, तो मैं उसका और आपका-दोनों का ख़ून पी जाऊंगा। ज़ोहरा मेरी है, और जब तक मैं हूं, कोई उसकी तरफ आंख नहीं उठा सकता।'
यह कहते हुए उसने दारोग़ा साहब का हाथ पकड़कर दरवाज़े के बाहर निकाल दिया और दरवाज़ा ज़ोर से बंद करके सिटकनी लगा दी। दारोग़ाजीबलिष्ठ आदमी थे, लेकिन इस वक्त नशे ने उन्हें दुर्बल बना दिया था । बाहर बरामदे में खड़े होकर वह गालियां बकने और द्वार पर ठोकर मारने लगे।
रमा ने कहा, 'कहो तो जाकर बचा को बरामदे के नीचे ढकेल दूं। शैतान का बच्चा! '
ज़ोहरा -' 'बकने दो, आप ही चला जायगा। '
रमानाथ-'चला गया।'
ज़ोहरा ने मगन होकर कहा, 'तुमने बहुत अच्छा किया, सुअर को निकाल बाहर किया। मुझे ले जाकर दिक करता। क्या तुम सचमुच उसे मारते? '
रमानाथ-'मैं उसकी जान लेकर छोड़ता। मैं उस वक्त अपने आपे में न था। न जाने मुझमें उस वक्त क़हां से इतनी ताकत आ गई थी।'
ज़ोहरा -' और जो वह कल से मुझे न आने दे तो?'
रमानाथ-'कौन, अगर इस बीच में उसने ज़रा भी भांजी मारी, तो गोली मार दूंगा। वह देखो, ताक पर पिस्तौल रक्खा हुआ है। तुम अब मेरी हो,ज़ोहरा! मैंने अपना सब कुछ तुम्हारे कदमों पर निसार कर दिया और तुम्हारा सब कुछ पाकर ही मैं संतुष्ट हो सकता हूं। तुम मेरी हो, मैं तुम्हारा हूं। किसी तीसरी औरत या मर्द को हमारे बीच में आने का मजाज़ नहीं है,जब तक मैं मर न जाऊं।'
ज़ोहरा की आंखें चमक रही थीं , उसने रमा की गरदन में हाथ डालकर कहा, 'ऐसी बात मुंह से न निकालो, प्यारे! '

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